23-04-2014
यह तो हम सभी जानते हैं कि भारतीय राजनीति में जाति और धर्म एक अहम भूमिका अदा करते हैं और शायद आजाद भारत में हम इसे गलत भी मानते हैं। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि कोई भी इससे छुटकारा दिलाने के लिए काम नहीं कर रहा है चाहे वे राजनीतिक लोग हों, जातीय संस्थाएं हों या फिर धार्मिक संस्थान हों। आज मैं इस विषय पर हरियाणा के परिप्रेक्ष्य में चर्चा करूंगा।
हरियाणा मेवात जिला को छोडकर सभी जिलों में हिंदू धर्म के लोगों का बाहुल्य है। मुस्लमान, ईसाई व अन्य धर्मों के लोगों की संख्या कम है। सदियों पहले हिंदू समाज के लोगों को चार वर्गों में बांटा गया- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र। सभी वर्गों में विभिन्न जातियों का भी जन्म हुआ। हर वर्ग का अपना एक कार्यक्षेत्र था और उसी में वे काम करते थे। कौन किस वर्ग या जाति से संबंध रखता है, उससे उसकी आर्थिक स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता था। समाज सामंतवादी सोच से चलता था और क्षत्रिय, ब्राह्मण व वैश्य लोग आर्थिक, शारीरिक या मानसिक रूप से ताकतवर रहे। शूद्र वर्ग के लोगों का दया पर रखा गया और उन्हें समान अवसर भी नहीं दिया गया। हर वर्ग और जाति के लोग अपने आपको अपने वर्ग और जाति में ही सुरक्षित मानते थे। हमारी ऐसी मानसिकता सदियों से चले आ रहे तंत्र से बन गयी।
देश आजाद हुआ और लोकतंत्र की स्थापना हुई। संविधान में सभी को बराबद के अधिकार दिए गए। नीचले वर्ग के जाति के लोगों को एक विशेष सूचि में रखकर उनको आरक्षण दिया गया। लेकिन सदियों से चल रही हमारी सामंतवादी मानसिकता नहीं बदली। आज भी हम अपनी जाति या वर्ग के लोगां के साथ जुडा हुआ महसूस करते हैं। रीति-रिवाज भी ऐसे हैं कि हम दूसरे समाज के लोगों के साथ संबंध बनाने में हिचकिचाते हैं। सभी को एक मत का अधिकार दिया गया चाहे वो किसी भी वर्ग का हो और कैसी भी उसकी आर्थिक स्थिति हो। आजादी के बाद कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी थी और सभी उसके पक्ष में वोट डालते थे। कांग्रेस पार्टी ने सत्ता में बने रहने के लिए नीचले वर्ग को शिक्षित या योग्य बनाने की नीतियां कभी नहीं बनाईं। इतना जरूर किया कि आरक्षण के माध्यम से कुछ लोगों को फायदा पहुंचाया और उनके माध्यम से पूरे वर्ग के लोगों के संरक्षक बन बैठे। जातीय मानसिकता का फायदा उठाते हुए देश में जाति के आधार पर राजनीति होने लगी और जो जितना जातीय भावनाओं को उकसा सका वो उतना ही सफल होता चला गया। इसके कई उदाहरण हैं। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की राजनीति इसका सबसे सटीक उदाहरण है। बसपा प्रमुख मायावती केवल वर्ग विशेष की ही बात पर अधिक फोकस करती हैं।
हरियाणा भी इससे अछूता नहीं रहा। जातीय आधार पर चुनाव लडे जाने लगे और हरियाणा में तो जाट और गैर जाट की राजनीति का बोलबाला है। ऐसा माना जाने लगा कि राजनीति में जातीय समीकरण बैठाए बिना चुनाव नहीं जीता जा सकता। ऐसे में मुद्दों की राजनीति खत्म हो जाती है और लोग भावनाओं में बहकर नेता को चुन देते हैं और फिर 5 वर्ष अपने फैसले का खामियाजा भुगतते रहते हैं। मैंने 2011 में हिसार लोकसभा उपचुनाव लडा और पूरे क्षेत्र में मुद्दों पर आधारित विचारधारा को जनता तक पहुंचाया। लेकिन जब मतदान हो रहा था, तब पोलिंग बूथों पर लोगों ने जो मुझे कहा, वह आश्चर्यनजक था। जाटों ने और गैर जाटों ने, जो हमारे समर्थक थे, हमसे कहा- अग्रवाल साहब माफी दे दीजिए हम आपको वोट नहीं डालेंगे, क्योंकि हमने आपको वोट डाल दिया तो दूसरी जाति वाला जीत जाएगा।
मैंने जाति आधारित राजनीति प्रत्यक्ष रूप से होते देखी है और बहुत से लोगों ने मुझे राय भी दी है कि मैं जाति आधारित राजनीति करूं तो जल्दी सफल हो जाऊंगा। हरियाणा में हाल ही में लोकसभा चुनावों में क्या हुआ। जातीय समीकरण को बैठाकर प्रत्याशी उतारे गए। हरियाणा प्रदेश के लिए केंद्र सरकार की क्या नीति होगी, इस पर किसी पार्टी ने कोई प्रचार नहीं किया। भाजपा का तो चुनावी घोषणा पत्र चुनाव के प्रथम चरण वाले दिन रिलीज हुआ। हरियाणा विधानसभा चुनाव अक्तुबर तक होने हैं और उसमें भी राजनीतिक दल जातीय समीकरण बैठाकर ही काम करेंगे।
समस्त भारतीय पार्टी जाती पर आधारित राजनीति की पक्षधर नहीं है। इससे किसी का भी लाभ नहीं होता न तो किसी जाति को व्यापक फायदा मिलता है और न विकास ही होता है। सिर्फ कुछ लोगों का फायदा जरूर हो जाता है। सभापा मानती है कि प्रदेश के विकास के लिए मुद्दों पर आधारित राजनीति का होना बहुत जरूरी है और सभापा आने वाले चुनाव में ऐसा ही करेगी। सभापा का मानना है कि जैसे-जैसे शिक्षा बढ रही है, नयी पीढी के लोगों की मानसिकता भी बदल रही है और इसी से बदलाव आएगा। युवा और महिलाएं राजनीति को बदलने में अग्रणी होंगे।
लेखक- सुदेश अग्रवाल
राष्ट्रीय अध्यक्ष, समस्त भारतीय पार्टी